Wednesday, September 22, 2010

बहस भरा सफर

सुबह के नौ बजे थे। तीन दोस्त दिल्ली-आगरा हाइवे पर चल रहे थे। वे नोएडा से आगरा आ रहे थे। रोहित, रौनित और अमजद। तीनों ही नोएडा के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र हैं। तीनों पढ़ने में तेज थे और तीनों की बनती भी खूब है। रोहित आगरा का रहने वाला और साधारण परिवार का था। तीनों रौनित की कार में उसी के घर आ रहे थे। रौनित बड़े परिवार का इकलौता बेटा था जबकि अमजद नोएडा में किराये पर रहता था। वो रहने वाला अलीगढ़ का है। आगरा आते हुए तीनों बात कर रहे थे आयोध्या फैसले के बारे में। हमेशा एक राय रहने वाले इस बार एक राय नहीं थे। फिर भी बहस कर रहे थे।

रौनित के पिता बडे वकील थे। दोनों में अक्सर सकारात्मक बातें होती थीं। अयोध्या फैसले को लेकर हलचल थी। इस पर भी चर्चा हुई। रौनित के पिता की दिनचर्या का यह हिस्सा था। वो खाली समय में समकक्ष वकीलों के साथ बैठते थे और सकारात्मक चर्चा करते थे। वही घर पर रौनित के साथ भी शेयर कर लेते थे। इस वजह से रौनित पिता के नजरिये को अपना नजरिया समझने लगा। उसके पिता कट्टर हिन्दू थे तो वह भी इस विषय पर कट्टर बात करने लगा जो अमजद और रोहित को बिल्कुल पसंद नहीं आ रही थी। बात करते हुए वह भूल गया कि उसके मित्र इस बहस का हिस्सा नहीं हैं।

अमजद मन ही मन गुस्सा हो रहा था, लेकिन दोस्ती की लाज रख रहा था। वह इस बहस का हिस्सा नहीं बनना चाहता था, लेकिन वह रौनित की बातों से जुड़ता जा रहा था। अमजद की पृष्ठभूमि सामान्य जरूर थी पर उसके अब्बा भी कट्टर थे। अलीगढ़ छोड़ने के समय उन्होंने साफ कहा था, ’अपनी कौम वालों से ही दोस्ती रखना।’ पर उसे तो रौनित और रोहित का साथ ही पसंद था। तीनों का प्रोग्राम आगरा के बाद अमजद के घर अलीगढ़ जाने का था। अमजद घर में इन दोनों को ले तो जा रहा था, लेकिन मन ही मन रौनित की बातों से डर भी रहा था क्योंकि अमजद के पिता अयोध्या में बाबरी निर्माण के लिए एकराय थे। उसकी अब्बा से ज्यादा बात तो नहीं होती मगर बाबरी प्रकरण की बातों पर वह अब्बा के चेहरे पर क्रोध देखता था।

अचानक अमजद ने रौनित से कहा, ’ये बातें कार तक ही ठीक हैं जब घर चलना तो कुछ मत बोलना।’

रौनित, ’यार, तेरे अब्बा के साथ तो बहस करने में मजा आ जाएगा।’

अमजद, ’तू वहां मंदिर बनाने जाएगा, क्या?’ थोड़ा गुस्से में...

रौनित, ’जाना पड़ेगा तो बिल्कुल जाउंगा।’

अमजद, ’तो सुन ले, मैं भी मुसलमान का बेटा हूं, वहां तो मस्जिद ही बनेगी, तुम्हारे लोगों ने गिराई थी।’

रोहित दोनों की बातों को काटते हुए....

यार, ये तुम्हारे लोग, हमारे लोग बीच में कहां से आ गए, चेंज द टॉपिक।

रौनित, ’नहीं बहस करने दे, मंदिर तो बनकर ही रहेगा।’

अमजद के बोलने से पहले ही रोहित अचानक बोला, ’तू था उस समय और तू’... अमजद की ओर इशारा कर बोला।

यार, हम लोग अपना टूर क्यों खराब कर रहे हैं। गहरी सांस लेते हुए रोहित बोला।

मैं तो इससे इतना ही कह रहा था घर पर मुंह बंद रखना, अब्बा बहुत सख्त हैं। अमजद ने कहा।

हां, तो तेरे अब्बा से भी बहस कर लेंगे। रौनित बोला।

सेटअप यार, तुम लोग दूसरी बातें नहीं कर सकते हो क्या? रोहित बोला।

दोनोें सांस भर कर बोलने ही वाले थे कि रोहित बोला, ’तू बता कितनी बार अयोध्या गया है और तू... अमजद की ओर देखकर बोला।’

दोनों का जवाब न में था।

हम इतने अच्छे दोस्त हैं फिर भी यहां हमारी सोच क्यों नहीं मिलती पता है...

क्यों...दोनों ने ही कहा।

क्योंकि हम अपने नजरिये से देखते ही नहीं हैं, रोहित बोला

क्या मतलब, रौनित और अमजद एक साथ बोले,

रोहित बोला, तुम्हारे पापा कट्टर हिन्दू और तुम्हारे भी कट्टर। तुम लोग सिर्फ उतना ही जानते हो, जितना उनसे सुनते हो और उसी आधार पर बहस कर रहे हो।

तुम दोनों एक दूसरे के नजरिये से क्यों नहीं सोचते हो?

थोड़ी देर के लिए तुम मुसलमान बन जाओ और तुम हिन्दू, फिर बताओ क्या सही है क्या गलत।

रौनित ने अचानक गाड़ी रोक दी। वह कोसी पहुंच गए थे। किनारे एक होटल के बाहर एक औरत कूड़े से बचा खाना बटोर रही थी। रौनित की नजर उस पर पड़ी।

रोहित और अमजद ने भी उसे देखा।

खाना बीनने के बाद वह कुछ दूर बैठे अपने बच्चे को चुन-चुन कर उससे अच्छा खाना खिला रही थी।

तीनों यह देख ही रहे थे कि रोहित बोला, ’ऐसा भी भारत है, देख रहे हो न।’ उससे पूछोगे तो वह कुछ नहीं जानती होगी कि मंदिर बनेगा या मस्जिद।

मैं यह अक्सर देखता रहता हूं और महसूस भी करता हूं। तुम लोग बहस नहीं कर रहे हो, बस जीतना चाहते हो। तुम दोनों में कोई भी झुकना नहीं चाहता। तुम दोनों अपनी बातें कर ही नहीं रहे हो। तुम दोनों तो अपने-अपने पिता की बातों का हिस्सा बन रहे हो। जो सुना वही चिल्ला रहे हो। इसका नतीजा जानते हो क्या होगा? ये हमारा साथ में आखिरी सफर भी हो सकता है।

क्या मतलब? रौनित और अमजद ने एक साथ कहा।

हम अतीत के लिए अपने भविष्य को बिगाड़ रहे हैं्र। जो नहीं चाहते वह हो रहा है। यदि यूथ भी ऐसे कट्टरपंथी लोगों के पीछे-पीछे चलने लगेगा तो यह बहुत डरावना होगा।

हम जैसे युवाओं को तो अपनी दिशा खुद तय करनी होगी। हां, अभी बहुत लड़ना होगा, लेकिन इस गरीबी से।

उस औरत की तरफ इशारा कर रोहित बोला।

दोनों का ही सिर शर्म से झुक गया...

रौनित और अमजद के मुंह से एक साथ निकला ’सॉरी’

कार का शीशा चढ़ाते हुए रौनित ने साउंड तेज किया और हंसते हुए चल दिए आगरा की ओर।

Monday, December 7, 2009

कुंवर ने बुलंद किया सियासत का झण्डा

अलीगढ़। अस्सलाम वालेअकुम... जैसे ही एएमयू के कैनेडी हाॅल में राहुल आए, उनके मुंह से निकलने वाले यह पहले शब्द थे। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी पूरी तैयारी के साथ अलीगढ़ व एटा आए और पूरे उत्साह के साथ लोगों से रूबरू हुए। मीडिया से दूरी बनाते हुए सोची समझी रणनीति के तहत राहुल 2012 के चुनावों की प्रारंभिक तैयारी कर गए। वे यूथ कांग्रेस के सदस्यों के दिमाग की चाभी अभी से टाइट कर गए कि टिकट या पद लेना हो तो जमीनी स्तर पर काम करें, तभी उनकी दावेदारी के बारे में सोचा जाएगा। वह यूथ कांग्रेस कार्यकर्ताओं को अपनी रणनीति समझाकर चले गए।
राहुल का अलीगढ़ व एटा दौरा सियासी लोगों खलबली मचा गया। लिब्रहान कमेटी की रिपोेर्ट संसद में पेश हो चुकी है। छह दिसंबर को बाबरी एक्शन कमेटी के लोग विवादित ढांचा विध्वंस की बरसी मनाते हैं। वहीं सात दिसंबर से लिब्रहान की रिपोर्ट पर संसद में चर्चा होनी थी। ऐसे में मुस्लिम नेताओं को मरहम और मुस्लिम वोटों में संेध लगाने के लिए भी राहुल ने एएमयू को चुना। शायद इसीलिए मीडिया को भी दूर ही रखा गया। उन्होंने कार्यकर्ताओं को अभी से जुट जाने और जमीनी स्तर से काम करने की सीख दी। राहुल उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। यही कारण है कि उन्होंने अपनी तैयारी की शुरुआत कर दी है। बता दें कि कल्याण सिंह एटा लोकसभा सीट से सांसद हैं और बाबरी विध्वंस के आरोपी भी हैं। इसीलिए ब्रज क्षेत्र में अलीगढ़ के बाद अन्य शहरों को न चुनकर एटा को ही चुना गया। राहुल का यह दौरा तो खत्म हो गया, लेकिन सियासत की हवा में गरमी बढ़ा गया। राहुल के दौरे में साफ संदेश था कि अब यूपी की बारी है।

-ज्ञानेन्द्र

Wednesday, September 16, 2009

सोच बदलें, हिन्दी का कल्याण होगा






हिन्दी को लेकर पद्म भूषण और पद्मश्री गोपालदास नीरज जी के दिल की व्यथा

हिन्दी भारत मां की बिन्दी
जन-गण-मन कल्याणी है
ये भाषा भर नहीं
भारतीय की आंखों का पानी है।

पद्म भूषण और पद्मश्री गोपालदास नीरज जी के मुंह से अचानक ही ये शब्द निकल पड़े। उन्होंने पीड़ा जताते हुए प्रश्न किया कि हिन्दी दिवस पर ही हिन्दी को क्यों पूजा जाता है? हिन्दी को हम मातृभाषा कहते हैं, लेकिन कुर्सी पर बैठे अफसर सारा काम अंगे्रजी में ही करना पसंद करते हैं। सिर्फ हिन्दी पखवाड़ा मनाकर ही इतिश्री कर ली जाती है। उन्होंने बाॅलीवुड फिल्मों को हिन्दी के विस्तार के लिए अहम बताया और इसका उदाहरण ‘जय हो‘ गीत से दिया जो विश्वभर में चर्चित है।
हिन्दी की महत्ता और विकास न होने की मुख्य वजह वे लोगों की मानसिकता को मानते हैं। उन्होंने बताया कि उच्चवर्गी परिवारों से तुलना की होड़ में मध्यवर्गीय परिवार भाग रहे हैं। इसके पीछे सीढ़ी का काम अंग्रेजी कर रही है। इस कारण हिन्दी पिछड़ती जा रही है। हिन्दी की दुर्दशा के लिए लोगों की मानसिकता ‘सोच‘ जिम्मेदार है। जिस दिन वह बदल जाएगी, हिन्दी भी सुधर जाएगी। उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि बच्चा जब पैदा होता है तो हिन्दी में ही रोता है। आ... वह उर्दू या किसी अन्य भाषा में नहीं रोता। पाक, अफगान और ईरान के बच्चे भी हिन्दी में ही रोते हैं।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा न मिलने का मलाल आज भी टीसता है। हिन्दी कवि और साहित्यकारों की दुर्दशा भी उनकी आंखों में नजर आई। उन्होंने बताया कि हैरी पाॅटर और चेतन भगत को तो पढ़ने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ गई, लेकिन हिन्दी साहित्य से लोग दूरी बनाए हुए हैं। इस कारण साहित्यकारों और कवियों की स्थिति हमेशा दयनीय ही रही। यदि एक व्यक्ति महीने में भी 100 रुपये हिन्दी पुस्तकों पर खर्च करे तो भी हिन्दी कवियों और साहित्यकारों को गरीबी नहीं झेलनी पड़ेगी। उन्होंने बताया कि वे अभी तक कवि सम्मेलन के मंचों पर पाठ करते हैं और तीन अक्टूबर को कवि सम्मेलन में भाग लेने देवरिया जा रहे हैं। स्वास्थ्य गड़बड़ होने के बावजूद इस उम्र में भी संघर्ष पर वह बोले कि सेहत से बड़ा पेट है।
अंत में वे बोल ही पड़े....
अपनी भाषा के बिना राष्ट्र न बनता राष्ट्र
रहे वहां सौराष्ट्र या बसे वहां महाराष्ट्र।।

Saturday, June 20, 2009

पिता दिवस पर मेरा समर्पण

मेरे पिता जी को समर्पित

वो जो हैं मेरे सपनों को सच करने वाले
मेरी छोटी बड़ी तकलीफों में सहारा देने वाले
मेरा हक़, मेरा गुरूर, मेरी प्रतिष्ठा, मेरी आत्मा
नहीं भुला सकता वो पापा हैं हमारे
उनके कन्धों पर बैठकर ही
ऊंचाई का अंदाजा लगाया था मैंने
अंधेरे रास्तों, कच्ची पगडंडियों पर
ऊँगली उनकी थम सहारा पाया था मैंने
कैसा होता है हीरो कहानियों का
पूछा था जब माँ से मैंने
मुस्कुरा कर उनकी आंखों का इशारा
पापा की तरफ़ पाया था मैंने॥

ज्ञानेंद्र, अलीगढ

Friday, June 19, 2009

बुढ़िया की व्यथा

परवरिश में भूल हुई क्या, न जाने
ढलती उम्र में बच्चे आँख दिखाते हैं
नाजों से पाला था जिनको, न जाने
क्यूँ अब सहारा बनने से कतराते हैं
निवाला अपने मुंह का खिलाया जिनको, न जाने
क्यूँ वे आज साथ खाने से घबराते हैं
सारा दर्द मेरे हिस्से और खुशियाँ उनके, न जाने
क्यूँ वे अब भी दर्द मेरे हिस्से ही छोड़ जाते हैं
उनकी पार्टी मानती है रोशनी में और मेरी साम अँधेरी कोठरी में, न जाने
क्यूँ वे हर बार मुझे ही शामिल करना भूल जाते हैं
उम्र के साथ कमजोर हुई मेरी सोच, न जाने क्यूँ वे आज मुझे याद करने से डर जाते हैं
जीवन के आखिरी सफर में चेहरे सबके देखने की हसरत में, न जाने
क्यूँ मेरे अपने विदेश में बैठ जाते हैं
अपनी उखरती साँसों के समय साथ उनका चाहा मैंने, न जाने
क्यूँ वे काम में इतने व्यस्त हो जाते हैं
उम्र भर सबको साथ लेकर चली मैं, न जाने
क्यूँ मेरी विदाई को वे गुमनामी में निपटाते हैं॥

ज्ञानेंद्र, अलीगढ

Tuesday, March 31, 2009

हमारे नेता

तन पर सफ़ेद कुरता मन पर ढेर सा मैला
ऐसे है हमारे नेता
कहते है जनसभा में चिल्लाकर वोट दो हमें
वोट दो हमें
हम दिख्लायेगे रास्ता तरक्की का विकास का
( अपनी )
वोट दो हमें हम दिलाएंगे आरक्षण
( और लड़ायेंगे तुम्हें )
वोट दो हमें और संसद भेजो हमको
(हम भूल जायेंगे तुमको) ॥

ज्ञानेंद्र कुमार
हिंदुस्तान, आगरा

Sunday, March 15, 2009

प्यार के नाम

अफसाना बनाने चला था मैं
उसको दीवाना बनाने चला था मैं
देख कर इक झलक उसकी
रूह_ऐ तमन्ना कह उठी
अब इबादत करूँ किसकी
खुदा की या उस चाँद की

दीवाना कर दिया उसकी इक नज़र ने
बेकरार कर दिया उसकी उसी नज़र ने
या खुदा मुझे कोई तो रास्ता बता दे
या वो रुख से नकाब उठा दे
या तू रुख से नकाब उठा दे

मेरी इक इल्तिजा मान मेरे मौला
मुझको मेरे महबूब का दीदार करा दे
दिखती है उसकी सूरत में तेरी सूरत
कुछ ऐसा कर मेरे मौला
उसके रुख से नकाब हटा दे

यदि देना है नज़राना तुझे मेरी बंदगी का
मेरी इबादत का मेरे रोजे का
मेरे मौला कर इशारा कुछ ऐसा
या तू देख मेरी ओर
या नज़र उसकी मुझ पर कर दे

अब और किसी जन्नत का मुझे सबाब नहीं
उसके कदमों में मेरी जन्नत है
बस इक आरजू है इल्तजा है
इक बार रुख से नकाब उठ जाए
मुझको मेरे खुदा का दीदार हो जाए
मुझको मेरे खुदा का दीदार हो जाए
मुझको मेरे खुदा का दीदार हो जाए।।
ज्ञानेंद्र
rastey2manzil।blogspot।com